Lucknow की बेगम ummat ul jahara का किस्सा।
चलिए आज आपको लखनऊ की बेगम साहिबा का का किस्सा सुनाते है।
जो नवाब बेगम की तरह ही एक खास शख्सियत की पहचान रखती थी लखनऊ के नवाबी खानदान में,जो नवाब बेगम की बहु और और सुजाऊद्दौला की ब्याहता थी नाम उम्मतुल जहरा था
दिल्ली के वजीर खानदान की यह बेटी 1745 में नवाब सुजाऊद्दौला को ब्याह दी गई थी। जिसका जिक्र आपने पहले वीडियो में भी सुना ही होगा? यह शादी दाराशिकोह के महल में हुई थी। इस बिन बाप के लड़की को शहंशाहे दिल्ली ने अपनी मुंहबोली बेटी बनाकर इसे अवध के नवाब ब्याहा था और उसमे लाखों रुपए खर्चे थे
ससुराल में उम्मतुल जहरा को जनाब आलिया बहु बेगम साहिबा का खिताब मिला।बहु बेगम का रुतबा बेगमें अवध की कतार में सबसे ऊंचा माना जाता था।इन्होंने अपनी पूरी जिंदगी बड़ी शानो शौकत और तनकमत के साथ गुजारी, उनकी हुक्मरानी से फैजाबाद क्या लखनऊ के महल भी थरथराते थे।
और तो और उनके शौहर सुजाऊद्दौला भी इनकी मायके की दौलत से दबाते थे। चूंकि सुजाऊद्दौला बड़े रसिक स्वभाव के आदमी थे,इसलिए उनकी औरत परस्ती पर रोक लगाना बहु बेगम के बस से बाहर था। हां इनका दबदबा इतना जरूर था कि सुजाऊद्दौला अगर एक रात भी इनके महल से बाहर गुजरना चाहते थे तो उसके एवज में अच्छा खासा हर्जाना वसूल करती थी।
बहु बेगम की यह शर्त थी कि जो रात उनके महल से बाहर गुजारी जाए उसके बदले में 5000 रुपए सुबह उनके सिरहाने पहुंचा दिया जाए। और जाहिर है कि जुर्माने के इस रकम से उनकी आमदनी उनकी जागीरों से भी ज्यादा हो गई थी। जब तक नवाब साहब ने अपने चलन पर काबू किया तब तक बहु बेगम सोने के चबूतरे चुनवा चुकी थी।
उनकी दहलीज का दरोगा बहादुर अली खान ख्वाजासरा था जो उनकी जागीर की देखभाल भी करता था। बहु बेगम के पांव में पदम था। दिल्ली से वो इतना मालों जेवर लेकर आई थी। के फैजाबाद की महलसरा भर गई थी।
बक्सर की लड़ाई का जो खर्च अंग्रेजों ने नवाब से वसूला था।
उसके बहुत बड़े हिस्से की अदायगी उन्होंने उन्हीं से की थी।अपने इकलौते बेटे आसफुद्दौला की भी उन्होंने वक्त पड़ने पर मदद की थी।मां बेटे में हमेशा अनबन रहती थी। इस जमाने में वह गोमती किनारे अपने खास महल सुनहरा बुर्ज में ठहरती थी। उनको जब आसफुद्दौला पहली बार मना कर फैज़ाबाद से लखनऊ लाए थे।
तो वह इस 8० मील के फासले में रास्ते रास्ते वो अशर्फियां लुटाते आए थे।
बेगम के लखनऊ में रिहायशी के दिनों में दौलतखाना आसाफी से उम्दा खाना बनवाकर सुनहरा बुर्ज भेजा जाता था लेकिन उन्होंने कभी उस खाने को हाथ तक नहीं लगाया था।उस सफारी खाने को सिर्फ नौकरों में तकसीम कर दिया जाता था। खज़ाने अवध से 400 रूपये रोज उनके दस्तरख्वान का खर्च बंधा जो दरबारी मौलवी उन्हें पहुंचाने जाते थे।
और ये तब थी जबकि वह दोपहर में एक बार खाना खाती थी। एक बार इसी बावर्चीखाने का कुल बकाया हिसाब 84 हजार रुपए हो गया था। जो बाद में फैजाबाद उनके महल भेजा गया था।
एक बार असफुद्दौला तंगदस्त थे बहु बेगम ने दो बरस तक उनके फौज को तनख्वाह बांटी थी।
सन 1816 में बादशाह गाजीउद्दीन हैदर शासनकाल में बहु बेगम जन्नत नशीन हुई। फैजाबाद में उनके जवाहर ट्रस्ट में किए गए लाखों रुपए से उनका आलीशान मकबरा बनवाया गया।
आप पढ़ रहे थे किस्सा बहु बेगम का
मेरे साथ
ख़ाकसार को rjali कहते।
मिलते फिर आपसे किसी नई दास्तान के साथ यही, तब तक लिए खुदा हाफिज