किस्सा लखनऊ की आखिरी बेगम Hazrat Mahal का।(Begum Hazrat Mahal)
ख़ाकसार को rjali कहते है.
आप सुन रहे मेरे साथ लखनऊ के तारीखों में दबे दिलचस्प किस्से ।
चलिए आज आपको लिए चलते है, किताबों के पीठ पर उकेरे अनगिनत शब्दों के बाग में लखनऊ के नवाबों के नवाबी के रौनक और रंगीनियों से उजड़ती महफिलों और लाशों के ढेरों पर बसती नई शासन व्यवस्था के अनसुने पहलू से रूबरू करवाते है।
ये पहली मार्च सन 1858 का दिन था। बहुतों ने उसे 16 मार्च 1858 की तारीख माना। जिस वक्त जनाबे आलिया यानि के बेगम हजरत महल चौलखी कोठी को छोड़कर घसियारी मंडी वाले फाटक से बाहर निकली। शहर में पानी काट काट बरस रहा था। बिरजिसकद्र एक बूढ़े सैयद की गोद में कंधे से लिपटे हुए थे। और उनपर एक गलीचा मय चांदनी पड़ा हुआ था। कहा जाता है ये कोई और न थे बल्कि बेगम हजरत महल के बाप ही थे। बेगम अपने बेटे को लेकर डोले में सवार हुईं ।
चार तोड़े अशर्फी और जवाहर बेस से भरे हुए पानदान और पिटारे साथ थे। हजरत महल के कामदार नवाब मम्मू खान ने जवाहरखाने से निकाल कर यही साथ कर दिया था बाकी उनके नायाब शरफुद्दौला को पीछे लेकर पहुंचना था। मगर हाय.. कुछ न पहुंचा। जिनकी किस्मत में था बस उन्होंने पाया।
सवारी सीधा पहुंची टीला शाह पीर जलील । कुछ मुरादों मन्नत हुई और अब मौलवीगंज में जवाहर अली खां के घर उतरी।वहां से सवार हुई तो गुलाम रजा खां की कोठी पर ठहरी और फिर शारफुद्दौला की हवेली में गई। वहां से इमामबाड़ा हुसैनाबाद में तशरीफ लाई।
जानशीन के बोसे लिए और रात मिर्जामंडी में शाहजी की ड्यूहढी में ठहरी।अगले रोज शहर के नाके आलमबाग की तरफ रुख किया। मम्मू खा ने घोड़े की रकाब पर पैर रखा,मीर मेहंदी अपनी अयाल के संघ थे।अहमद हुसैन, हकीम हसन रजा साहब ,कुछ तिलंगे सवार और बाकी सब पैदल सब साथ हो लिए
आलमबाग से निकलकर सबके सब भरावन पहुंचे,राजा मर्दन सिंह ने एक चौपाल ठहरने को दिया और वो भी बमुश्किल तमाम यहां तक कि खुद आने और मुलाकात करने की जेहमत तक न की।
सफ़र के बाद सब के सब भूखे थे। बेगम और उनका बेटा भी ,लेकिन दहलीज से पैगाम आय की जल्दी क्या है? जब खाना पक चुकेगा तब भेज दिया जाएगा। आंसू के घूंट पी कर रह गई वो भी गदर की मशाल।
पूछने वालों ने इस बेरुखी को वजह दरयाफ्त की तो जवाब मिला ,हम तुम्हे क्यों जगह दें और क्यों तुम्हारे शरीक हो? तुम हर जगह मिसलें मेंढक उछलती फ़िरोगी और अंग्रेज मिसलें सांप लहराते फिरेंगे।
और फिर बेगम के पैर उखड़ गए, और याद आए रइया के सदामऊ राजा नरपति सिंह ,जो बेगम के वफादार थे, यही थे जो बाद में बहराइच के लडाई में उनकी तरफ से अंग्रेजों से भीड़ गए और जंगे आज़ादी अव्वल में अपनी जान लूटा दी।
अब बेगम ने पश्चिम का इरादा छोड़कर उत्तर की तरफ मुंह मोड़ा और कठवारा में पड़ाव किया। कठवारे के पठान सरदार ने बेगम की खूब मेहमान नवाजी की मगर बेगम को कठवारा आया हुआ जानकर अंग्रेजों ने कठवारे के सरदार खान बहादुर को कैद कर लिया और उसका कुल इलाका जब्त कर लिया ।
और उसके बाद बेगम का अगला पड़ाव खैराबाद फिर महमूदाबाद,भिटौली,बहराइच,नायकोट होते हुए नेपाल की सरजमी पर कदम रखा। बेगम हजरत ने जिन लोगों के यहां पनाह लीं वो लोग अंग्रेजों द्वारा या तो मारे गए या फिर उन्हें बंदी बना लिया गया।
नेपाल की सरहद में पनाह के लिए पांव रखने से पहले ही बेगम साहिबा ने नेपाल के महाराज को तमाम हीरे जवाहरात बतौर नजराने भिजवा दिए थे।ये सब अच्छे ताल्लुक रखने की गर्ज से किया जा रहा था।
उस दिन बेगम को वो वक्त याद आया,जब जाने आलम से लार्ड डलहौजी ने महल में शाही मुलाकात की थी
उस वक्त बादशाह ने अवध की सरहद पर अंग्रेजी फौज के इकट्ठा होने का सबब पूछा था । तो रेजिडेंट ने जवाब दिया था नेपाल का राजा तीर्थयात्रा पर निकला है तो ये सारा इंतजाम उसकी हिफाजत के लिए ही है।
हुक उठी दिल से खुद बेजार हुई मगर करती ही क्या लाचार थी।
जब राजा नेपाल की राजधानी में उतारी तो पहले अपने रहने के वास्ते एक मकान किस्त पर लिया ,फिर काठमांडू से कुछ ही दूरी पर बर्फ बाग नाम से अपने लिए एक महल बनवाया और शहर के बीचों बीच में एक मस्ज़िद और एक इमामबाड़ा बनवाया अब तक हजारों हिंदुस्तानी नेपाल पनाह ले चुके थे।बेगम और उनके बेटे के लिए राजा नेपाल ने गुजारा बांध दिया था 500रुपए माहवार का
इस तरह बड़ी बेचारगी के साथ मुसीबतों से भरे बेचारगी के दिन काटे और अप्रैल 1876 हजरत महल नाम का वो फुल मुरझा गया।
आप सुन रहे थे किस्सा बेगम हजरत महल का
मेरे साथ खासकर