लखनऊ के नवाबों का किस्सा( lucknow ke nawabo ka kissa).
खुदा की इस कायनात में यू तो एक से बढ़कर एक चीज़ों का वजूद आज भी मौजूद है,ऐसे ही इतिहास को गोद में एक से बढ़कर एक दानवीर और सुरमा भी गुजरे है,चलिए आज आपको दस्ताने अवध यानी लखनऊ के नवाब के ,नवाबी का एक दिलचस्प किस्से आपको रूबरू करवाते है।
नवाब असफुद्दौला अपने दानशीलता और अनोखे तौर तरीके के लिए जाने गए, सच कहा जाए तो लखनऊ की सरजमीं पर नवाबी की यही पहली करवट थी, उनकी दरियादिली और दिलबरी के तमाम किस्से आज भी लखनऊ के चौक चौराहों और वादियों में महकते और चहकते है।
असफुद्दौला गोमती नदी के दाएं किनारे पर शीशमहल के दौलतें खाने में रहते थे। यह पूरा का पूरा इलाका उनके महलों और दीवानखानो से भरा हुआ था। एक बार असफुद्दौला शाम के वक्त अपने दौलत खाने की बलाई मंजिल पर बारजे के पास मुसाहिबो से घिरे बैठे थे।
सामने संगी मस्जिद के नजदीक एक गरीब बुढ़िया लोहे की एक तलवार लिए नवाब साहब के नजरे कर्म के इंतजार में खड़ी थीं। जैसे ही नवाब ने उस तरफ देखा, उस गरीब ने सलाम पेश किया।
नवाब साहब ने समझा शायद यह असीलाह मुझे नज़र करने लाई है। उन्होंने चोपदार को भेज कर तलवार मंगवा ली। उसे देखा तो पाया यह मामूली कच्चे लोहे की बनी हुई है। इसलिए अपने मकसद के लिए ये बिल्कुल बेईमानी थी। ऐसी बेकार चीज को उन्होंने ने फ़ौरन वापिस कर दिया और पूछावाया की अगर उसे किसी चीज की दरकार है तो बेशक उसकी वह मुराद पूरी हो सकती है। लेकिन यह तलवार मेरे किसी काम की नहीं।
बुढ़िया ने अपने लौटाई हुई तलवार हाथों में ले ली और मुंह से कुछ न कहा, सिर्फ उस तलवार को उलट पलट कर देखती रही,नवाब असफुद्दौला को उसकी इस हरकत पर बड़ी हैरानी हुई ,वही से पूछा क्या तुम्हें कोई शक है कि?
हमने इसको बदल दिया है,या फिर तलवार में से कुछ चीज़ बदल दी गई या फिर निकल ली गई है? बुढ़िया ने नम निगाहों से अर्ज किया । बंदापरवर हम गरीब और मोहताज लोग है यह सुनते थे कि आसफुद्दौला पारस है, लेकिन मेरी तकदीर तो देखिए मेरी ये तलवार आपके हाथ में पहुंच कर भी लोहे की लोहा ही रह गई।
यह सुनकर नवाब साहब मुस्कुरा दिए और उसी दम उसका ये तोहफा सर आंखों कबूल कर लिया। फिर उस तलवार के वजन के बराबर सोने की मोहरे उस बुढ़िया को दिलवा दी।
वह बेवा औरत अपने दामन में अपनी उम्र भर का इंतजाम लेकर नवाब असफुद्दौला को दुआएं देती हुई चली गई।
आइए अब आपको ऐसे ही एक ओर किस्से से रूबरू करवाते है, एक रोज नवाब असफुद्दौला अपने ऐशबाग में टहल रहे थे, उस समय एक चौदह साल का लड़का एक पिंजरे में एक जोड़ा कबूतर लेकर उनके नजदीक आया । नवाब साहब ने उससे आने का सबब पूछा?
तो उसने सर झुकाकर कबूतरों पिंजरा उनके नजर कर दिया। इन मामूली कबूतरों कीमत समझते हुए नवाब साहब ने नौकर से उस लड़के को एक रुपए देने के लिए कहा । इस पर वह गरीब लड़का आंखों में आंसू भरकर बोला हुजूर मैं सैय्यदजादा हूं कोई चिड़िमार नहीं । एक महीने पहले मेरा बाप का इंतकाल हो गया। मेरे घर में इन दो जोड़ी कबूतरों के सिवा कुछ भी नहीं था, दो रोज फाका खाने के बाद मैं ये जोड़े लेकर आपकी खिदमत में हाजिर हुआ हु।
नवाब साहब यह सुनकर बहुत अफसोस हुआ और उन्होंने उसी वक्त उस लड़के को चांदी के सौ सिक्के दिलवाए जब वह लड़का सिक्को की थैली लेकर चला तो बाग के दरोगा ने हस कर कहा बड़े किस्मतवाले हो जो दो टके माल के सौ सिक्के ऐंठ लिए ।
यह सुनकर नवाब ने दरोगा को अपने पास बुलाया और उसका कान पकड़ कर बोले क्या हमे नहीं पता कि वह माल दो टके का है।
आप पढ़ रहे थे , दास्ताने अवध,अवध के नवाब असफुद्दौला का किस्सा ,
मेरे साथ .......
ख़ाकसार को rjali कहते,
मिलते है आपसे फिर अगली दास्तान के साथ में यही ,किसी नई दास्तान के साथ तब तक के लिए खुदा हाफिज।