भारतीय ग्रामीण इलाको में ईंट के भट्टो का व्यापार होना कैसा है?
यूं तो हम सब जानते है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है। भारत की ज्यादरत आबादी कृषि ववसाय पर निर्भर करती है, और भारत की 80% आबादी ग्रामीण इलाको में ही रहती है। बाकी 20% आबादी शहरों में जीविका उपार्जन हेतु अपना गुजर बसर करती है । लेकिन अब भारत की आबादी ग्रामीण इलाकों से शहरी इलाकों में प्रवेश कर रही है। और भारत की बढ़ती आबादी और जीविका के लिए नए नए साधन जुटाने के लिए लोग शहरो पर भारी मात्रा में निर्भर होने लगे है। जन्हा शहरी जीवन लोगो को ववस्थित रुप से रहना सिखाता है वन्ही शहरी जीवन काफी भाग दौड़ भरी जिंदगी वाला हो गया। जबकि ग्रामीण इलाकों में यह साइकिल काफी धीमी गति से चलता है, मौसम के अनुरूप क्योंकि ग्रामीण आबादी कृषि पर निर्भर करती है। वैसे आपको यह जानकारी हो चुकी होगी की भारत चीन को पछाड़ कर दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश बन चुका है।
भारत में व्यापार और जो कल कारखानों की जगह है वह ज्यादातर शहरी इलाकों में मिलता है, उसके पिछे की जो वजह है , पहला आवा गमन का साधन , दूसरा कारखानों को चलाने के लिए बिजली की जरूरत होती है जो शहरी इलाकों में बड़े ही आसानी से उपलब्ध होती है जबकि ग्रामीण इलाको में ऐसा बहुत कम होता है । और कारखानों में काम करने के लिए कार्मिक जो शहरी इलाकों में आसानी से मिल ही जाते है। पर मेरा मकसद आपको यह बताना नही कि सिर्फ शहरो में ही कल कारखाने लगाए जा सकते है। ग्रामीण इलाको में भी कल कारखाने लगाए जाते है। क्योंकि ग्रामीण इलाको में कारखानों में तैयार किए जाने वाले माल के लिए कच्ची सामग्री ग्रामीण इलाको से ही ली जाती है।
भारत के ग्रामीण इलाको में फलता फूलता ईंट का कारोबार।
मिट्टी पर आधारित और लोगो को पक्के घरों में रहने की लालसा ने ईंट के भट्टो को एक बड़े रोजगार के रूप में जगह दी है, वैसे तो यह उद्योग प्रकृति संसाधनों पर ही होता है, और भारी मात्रा में ग्रामीण इलाकों में मजदूरों को रोजगार भी देता है। और भारत के ग्रामीण इलाको में भारी मात्रा में ईंट के कारखाने खुले है। जो लोगों को शहरी जीवन की ओर ले जाने और शहरो की तरह पक्के घरों में रहने के सपने को साकार करने में मदद कर रहे है। और ईंट के भट्टो को बनाने वाले सामग्री जैसे मिट्टी, ईंट पाथने के लिए श्रमिक और पकाने के लिए भारी मात्रा में कोयला या फिर लकड़ियों का भारी मात्रा में प्रयोग किया जाता है। जो दिखने में प्राकृतिक रोजगार के रूप में ही नजर आता है।
और आप जब दिल्ली शहर से बाहर की ओर जाने लगेगे तो आपको कुछ ही किलो मीटर की दूरी में कई इंट के भट्ठे नजर आने लगेगे और यूपी और पंजाब के राज्यो में भी इनकी भारी संख्या देखने को मिलती है। जन्हा ये ग्रामीण इलाकों में बने भट्ठे भारी मात्रा में एक तरफ लोगो के जीविका के साधन बने हुए है वन्ही अब यह इन भट्टो की बढ़ती जनसंख्या कृषि के लिए मुसीबत भी बनती नजर आ रही है।
क्या ईंट के भट्ठे ग्रामीण इलाकों में कृषि के पूरक है ?
जब भारत में कॉविड 19 महामारी आई थी तब इन ईंट के भट्टो ने ग्रामीण इलाको से शहरों में रोजगार के लिए मजदूरी करने वाले मजदूरों के लिए रोजगार का साधन जुटाने में एक बडी भूमिका निभाई थी, जिसका प्रोत्साहन केंद्र और राज्य दोनो सरकारों ने किया भी । लेकिन अच्छी मजदूरी न होने के कारण लोग स्थानीय स्तर पर बहुत कम ईंट के भट्टो पर काम करने के इच्छुक नजर आते है यन्हा ग्रामीण से बात करने यह जानकारी निकल कर सामने आई। लोग अच्छे वेतन की तलास में फिर से शहरों की ओर लौट गए। और दूसरा कारण यह भी है की ईंट के भट्टो का काम भी मौसमी है यह नवंबर में ईंट पाथने के लिए लोग दूसरे इलाको या राज्यो से आते है जैसे छत्तीस गढ़ या झारखंड से। वह मार्च तक ईंट पाथने का काम करते है उसके बाद फिर इस लंबी सी दिख रही चिमनी के जरिये ईंट को पकाए जाने का काम चालू हो जाता है और फिर प्रवासी मजदूर आपने घरों की तरफ वापस लौट जाते है। जन्हा यह ग्रामीण इलाको के लोगो को स्थानीय स्तर पर रोज़गार देने का काम करता है लेकिन यह कृषि के लिहाज से पूर्णत पूरक है ऐसा भी नही है।
कृषि के लिए ईंट के भट्ठे नुकसान देह साबित हो रहे।
- जैसा की सभी इस बात से भली भाती परिचित है की ईंट बनाने के लिए कच्ची सामग्री के रूप में भारी मात्रा में मिट्टी की अवशक्यता होती है। और भट्टा मालिक मिट्टी की ववस्था कम लागत में करने के लिए किसानों को लालच देकर उनके खेतों से मिट्टी निकालने की अनुमति लेते है और वह जितने की अनुमति लेते है उससे 2 या 3 फुट गहरा ही मिट्टी जेसीबी की सहायता से खोद कर निकाल लेते है जिसके चलते समतल खेतो की जगह अब बहुत से खेत ऊंचे और बहुत से खेत नीचे या गढ्ढो में नजर आने लगे है। ज्यादा ईंट पाकने की लालच में ज्यादा मिट्टी का दोहन किया जा रहा है, गंगा किनारे बने मिट्टी के ऊंचे ऊंचे पहाड़ भी ईंट के भट्टो के लालच का शिकार बन रहे है जो ग्रामीण इलाकों के जानवारो के रहने स्थान और ग्रामीण गाय भैंसो के चारा के स्थान हुआ करते थे वह अब धीरे धीरे गायब होने लगे है।
- ईंट के भट्टो से दूसरा नुकसान यह हो रहा है की जब ईंट के भट्टो आस पास खड़ी फसल निकले वाले धुंए और उसके साथ उड़ने वाले कोयले के कण फसलों को नुकसान पहुंचा रहे है , जिसके चलते खेत में खड़ी फसल पीलेपन का शिकार हो जाती है जिसके चलते या तो वह मुरझाने लगती है या फिर फल लेने में कामयाब नही होती है।
- लेकिन अगर किसान के फायदे की बात करे तो ईंट के भट्ठे कुछ हद तक उनका फायदा भी कर रहे है जैसे कृषि से निकले वाली प्राली जो इन दिनों प्रदूषण की समस्या बना है दिल्ली जैसे शहरों में , लेकिन बहुत ऐसा मेरे पर्सनल अनुभव के अनुसार किसान सिर्फ नाम मात्र की प्राली खेतों में जलाते है क्यूंकि धान की कटाई के बाद निकलने वाले पुआल को बहुत से किसान गाय भैंसो के चारे के रूप में इस्तेमाल करते है, और बहुत से किसान उनका ईंधन यानी खाना पकाने के रूप उसका इस्तेमाल करते है क्योंकि जिस तरह से वर्तमान समय में गैस और मंहगाई आसमान छू रही है उसके चलते यह किसानों के लिए ईधन का अच्छा स्रोत हैं, और जो उनके खपत से अधिक होता है तो वह ईंट के भट्टो पर इन्हें बेक देते है जिसके चलते ईंट के भट्ठे वाले इन्हें खरीद कर भट्टो पर काम करने वाले मजदूरों को खाना पकाने में सहायक होने का काम करते है।
अंतत हम यह कह सकतें है कि जिस तरह से ईंट भट्टो के भट्टो की संख्या बढ़ी है उसपर सरकार को लगाम लगाने की जरूरत है क्योंकि जन्हा यह तरह से लोगो के जीविका का साधन है वन्ही यह दूसरी तरफ़ किसानों के लिए मुसीबत भी है क्योंकि इसके चलते भारी मात्रा में मिट्टी का दोहन किया जा रहा है।
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